सोचती हूँ जो तलवार होती हाथ में...सोचती हूँ जो तलवार होती हाथ में तोकितनों के शानों पर सर नहीं होता...न कोई फितना फ़साद होतान तो जुल्मों सितम का निशां होताशहतीरों को तब न कोई शूल कभी चुभताआफ़ताब लिये फिरते हैं ये चराग़ सभीइनको न आंधियों का डर कभी होताजुगनुओं की रौशनी भी तबमशालों पर परवाज़ करतीआसमां के दिये होते सभी ज़मी परधधकते कहकशों कि सरगोशियों में धड़कते कई तूफ़ां होते...तुम जो आसमां को नोच नोच कर भीमन का अंधेरा मिटा न सके...चाँद भी टांग लो खूँटी पर तो क्या..एक कतरा भी रौशनी का कहीं अटका न सके,मुकद्दर लिखते लिखते ज़माने काहिसाब अपना ही न संभाल सकेताले लगाये थे जिन घरों परवहां बसेरे आज भी हैं...एक ज़रा सी आहट परखौफ में लिपटगये थरथरा करमजलिसें, महफ़िलें और सजती सभाओं का तिलिस्मबहुत हो गईं राष्ट्रहित और जनहित की नुमाइशें गुज़रते लम्हों की तपिशजलाकर ख़ाक न करदे कहींडरो जो सीने में ज्वालामुखी और रगों में अंगारे लिए फिरते हैन आज़माओ इन्हेंमौंजों से खेलती कश्तियों कोतैरने का हुनर आज भी है...